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क्या मुप्त में हार गयी बीजेपी : - प्रवीणसिह राजपुरोहित

दिल्ली/प्रवीणसिह राजपुरोहित/समीक्षा
हाल ही दिल्ली में चुनाव की नतीजे आये जिसमे जीत हाथ लगी है आम आदमी पार्टी को और सवाल भी लोगों के दिमाग मे है कि क्या आम आदमी की मुप्त वाले वादो से जीत मिली है? स्पाइडर रॉबिन्सन की मशहूर रचना द फ्री लंच में लिखा है कि इस दुनिया में 'फ्री लंच" जैसी कोई चीज नहीं है. जनता को अहसास होता है कि उसे मुफ्त में कुछ मिल रहा है।
लेकिन, असल में ये एक माया-जाल होता है, जिसमें लोग खुशी-खुशी फंसते जाते हैं . भारतीय लोकतंत्र में आजकल इसी माया-जाल वाला मुफ्त काल चल रहा है, जिसमें मतदाता अपनी खुशी से, फंसता जा रहा है. नेता मुफ्त में कूपन बांट रहे हैं और जनता उन्हें लूटने में व्यस्त है. आज हम दिल्ली और बाकी राज्यों का उदाहरण देकर इसी मुफ्त काल का सरल विश्लेषण करेंगे और ये सवाल भी पूछेंगे कि क्या बीजेपी मुफ्त में हार गई?
स्पाइडर रॉबिन्सन की मशहूर रचना द फ्री लंच  में लिखा है कि इस दुनिया में 'फ्री लंच" जैसी कोई चीज नहीं है. जनता को अहसास होता है कि उसे मुफ्त में कुछ मिल रहा है लेकिन, असल में ये एक माया-जाल होता है, जिसमें लोग खुशी-खुशी फंसते जाते हैं . भारतीय लोकतंत्र में आजकल इसी माया-जाल वाला मुफ्त काल चल रहा है, जिसमें मतदाता अपनी खुशी से, फंसता जा रहा है. नेता मुफ्त में कूपन बांट रहे हैं और जनता उन्हें लूटने में व्यस्त है. आज मैं दिल्ली और बाकी राज्यों का उदाहरण देकर इसी मुफ्त काल का सरल विश्लेषण कर रहा हूँ कि क्या बीजेपी मुफ्त में हार गई? केजरीवाल सरकार ने मुप्त में बिजली, पानी, महिलाओं के लिए बस यात्रा, इलाज की गांरटी, और हर इलाके में वाई फाई जैसी मुप्त योजनाए शामिल हैं लेकिन ध्यान देने की बात ये है कि मुफ्त वाली लिस्ट तो बीजेपी ने भी जारी की थी .बीजेपी के घोषणापत्र में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की 12वीं कक्षा की छात्राओं के लिए मुफ्त साइकिल और कॉलेज जाने वाली छात्राओं को मुफ्त में स्कूटी देने का वादा किया गया था. इतना ही नहीं दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने ये भी कहा था कि उनकी पार्टी जीतकर आई तो मुफ्त में बिजली और पानी वैसे ही मिलता रहेगा, जैसे अभी मिलता है.माना जाता है कि भारतीय राजनीति में 'मुफ्त' की सेल सबसे पहले तमिलनाडु में लगाई गई थी. अस्सी के दशक में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम जी रामचंद्रन ने धोती और साड़ी से इसकी शुरुआत की थी. अपनी मुफ्त वाली लिस्ट में उन्होंने बाद में बच्चों के लिए टूथ पाउडर और चप्पल को भी जोड़ दिया था लेकिन ये लिस्ट अब स्कूटी और लैपटॉप से लेकर बिजली और पानी तक पहुंच गई है. आज 40 साल बाद ये कहा जा सकता है कि इस समय भारतीय राजनीति का मुफ्तकाल अपने स्वर्ण-युग में है. इस बात को साफ तरीके से समझने के लिए कुछ उदाहरण देखिए. हमने आपको दिल्ली के बारे में तो बताया ही...कि कैसे मुफ्त पानी और बिजली का केजरीवाल सरकार को फायदा हुआ . अब हाल के कुछ और चुनावों के बारे में बताते हैं.वर्ष 2018 में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए थे. वहां कांग्रेस ने किसानों के 2 लाख रुपये तक के लोन माफ करने का वादा किया था. 12वीं में 70 प्रतिशत अंक लाने वाले छात्रों को मुफ्त में लैपटॉप देने का वादा भी किया गया था. इस चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई. वर्ष 2018 में राजस्थान में भी चुनाव हुए. कांग्रेस ने किसानों की कर्जमाफी के अलावा राज्य के सभी युवकों को हर महीने साढ़े तीन हज़ार रुपये बेरोज़गारी भत्ता देने का वादा किया था. कांग्रेस की वहां भी जीत हुई. इसी साल छत्तीसगढ़ में भी चुनाव हुए. कांग्रेस ने किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के परिवारों को मुफ्त में मकान और ज़मीन देने का भी वादा किया गया था . बाद में जो नतीजे आए, उसमें कांग्रेस विजयी रही.लेकिन, दिल्ली सरकार ने मुफ्त की योजनाओं के लिए जो बजट बनाया, उसका पैसा कहां से आया? दिल्ली के खर्च का कुल 71 प्रतिशत हिस्सा...यानी 42 हजार 500 करोड़ रुपये दिल्ली के लोगों पर लगाए गए टैक्स से आया . इसी तरह दिल्ली के खर्च का 11 प्रतिशत हिस्सा यानी 6 हज़ार 700 करोड़ रुपये केंद्र सरकार ने दिए. ध्यान दीजिए कि दिल्ली सरकार को अभी भी अपने 18 प्रतिशत खर्च की व्यवस्था करनी है . इसके लिए पैसा कहां से आएगा . इसके लिए उसे या तो कर्ज लेना होगा या फिर अपने पुराने फंड का इस्तेमाल करना होगा . कहने का मतलब ये है कि अगर सरकार कर्ज लेगी तो उसे चुकाने के लिए फिर जनता से ही यानि आप से ही टैक्स लेगी . कुल मिलाकर मुफ्त की योजनाओं का खर्च पब्लिक की जेब से ही निकाला जा रहा है.राजनीति में बढ़ती इस मुफ्त वाली परंपरा पर खुद सुप्रीम कोर्ट भी सख्त टिप्पणी कर चुका है . पिछले वर्ष दिल्ली सरकार मेट्रो में महिलाओं को मुफ्त में सफर करने की सुविधा देने जा रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कहा था कि ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जिससे कोई नुकसान हो. कोर्ट ने ये भी कहा था कि अगर दिल्ली सरकार लोगों को मुफ्त यात्रा कराएगी तो इससे परेशानी होगी क्योंकि कुछ भी मुफ्त में मिलता है तो ये समस्या पैदा करता है. इससे पहले वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मुफ्त की चीजें साफ-सुथरे चुनाव के लिए हानिकारक हैं.मतदाताओं को मुफ्त में घरेलू सामान बांटने के तमिलनाडु सरकार के फैसले के खिलाफ वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हुई थी. तब सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगाने से मना कर दिया था और कहा था इस बारे में खुद चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को दिशा-निर्देश बनाने चाहिए लेकिन राजनीतिक दल और आगे बढ़ गए और बिजली-पानी से लेकर किसानों के लोन तक पहुंच गए. ताज़ा फैशन मुफ्त बिजली और पानी का है. दिल्ली में शानदार सफलता के बाद अब पश्चिम बंगाल सरकार ने भी मुफ्त बिजली देने की घोषणा की है. अगले वर्ष पश्चिम बंगाल में चुनाव हैं. उसके पहले इसी वर्ष बिहार में भी चुनाव हैं. उम्मीद कम है कि कोई राजनीतिक दल मुफ्त की राजनीति से खुद को अलग कर पाएगा. ये भी संभव नहीं है कि जनता के बीच से मुफ्त वाली राजनीति के खिलाफ विरोध के स्वर उठें, और मुफ्त वाली सियासत से आज़ादी की मांग के लिए कोई धरना या प्रदर्शन पर बैठे.समाजवादी विचारक डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि अगर समाज में समता और संपन्नता हो तो सरकारों को लुभावने वादे करने की ज़रूरत नहीं होती है. हमारे देश का संविधान ये कहता है कि समाज के वंचित वर्ग के कल्याण के लिए सरकारों को उचित कदम उठाने चाहिए . लेकिन, संविधान उस ''मुफ्त मॉडल'' की इजाज़त नहीं देता है, जो आज की राजनीति में किसी वायरस की तरह फैल रहा है. डॉ. लोहिया इस बात के हिमायती थे कि किसानों की मदद की जाए. वो चाहते थे कि 5 या 7 वर्षों के लिए ऐसी योजना बने, जिसके तहत सभी खेतों को सिंचाई का पानी मिले . लेकिन वो इस बात के विरोधी थे. अनंत काल तक मुफ्त वाली योजनाएं चलाई जाएं. कहने का मतलब ये है कि राहत को स्थायी समाधान नहीं समझ लेना चाहिए और जनता को मुफ्त वाली सुविधाएं देने के बदले इस काबिल बनाना चाहिए कि वो खुद अपने कर्ज चुकाए और खुद ही अपने बिजली और पानी के बिल भी भरे.

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